तीरों की संख्या

मंगलवार, जनवरी 04, 2011

आत्महत्या शान्ति नहीं

कर लिया है आज वरण

मृत्युलोक से ओझल चरण

प्राप्त क्या होगी तुझे शान्ति

यह तेरे मन की है भ्रान्ति

ना हो पाया तू मर्यादित

कुछ भी न कर पाया निर्धारित

नहीं ह्रदय जन का आकर्षित

तेरे ठहरे विचार कुत्षित

स्व जीवन का तू मारा

नहीं सम्पूर्ण था दुःख सारा

यदि संघर्षरत रहता बेचारा

तू भी होता जग का प्यारा

मृत्युलोक से हुआ तू विगलित

अन्य लोक में भी तू पीड़ित

यहीं धरा पर स्वर्णिम पल हैं

कहीं नहीं है कोई कान्ति

प्राप्त क्या होगी तुझे शान्ति

यह तेरे मन की है भ्रान्ति

धमाकों के बाद

वहाँ हुए थे धमाके

धमाकों के बाद

मरी हुई चीखें निकलती हैं

और ज़िंदा मौत

रास्तों पर इधर-उधर

बिखरी पड़ी होती है

पूरी दुनिया दहल जाती है

झूठी है यह पंक्ति

दहलते हैं तो बस

बुढापे का सहारा खो चुकी

दो बुझती ऑंखें

बिधवा हुई पत्नी

लावारिस हो चुके बच्चे

या अपाहिज आत्माएं

कोई कुछ नहीं कर पाता

सिवाय बहस के

कोई कुछ भी नहीं पाता

वे भी नहीं

जो यह करते हैं

वे भी खो चुके होते हैं

इंसान कहलाने का गर्व 

मोहब्बत की खीर

कीड़े खा गए प्यार से

ऐसी पीर क्यूँ बनायी

चट कर गए दुनिया वाले

मोहब्बत की खीर क्यूँ बनायी

धमाका हुआ जब नीचे से.

लीक हो गयी पीछे से

तब बेचारा रांझा चिल्लाया

ऊपर वाले ने हीर क्यूँ बनायीं

चट कर गए दुनिया वाले

मोहब्बत की खीर क्यूँ बनायी



जय जवान जय किसान

नेता कहता , मेरा बेटा

प्रधानमन्त्री बनेगा

अभिनेता कहता , मेरा बेटा

अमिताभ बच्चन बनेगा

मेरे गाँव का जोखू किसान कहता

मेरा बेटा पहलवान बनेगा

पहलवान बनके फ़ौज का जवान बनेगा

मै सोच रहा था

क्या ऐसा भी सोच सकता है

एक गरीब इन्सान

भाई वाह

जय जवान , जय किसान

तुम न मिली

रुकी रुकी सी लगती हैं

ओस सी कुछ निर्मल बूँदें

थमे थमे से लगते हैं

जग के अंधियारे नभ सारे

तुम ही तो थी प्रेयसी

तुम ही थे चिर मित्र हमारे

पर हुई कैसे ये भावना झूठी

तुम न मिले न मिले किनारे

गिद्धों की दुनिया

क्या मै झूंठा हूँ माँ

जब मै कहता हूँ की

आज मालिक ने

हम सबको खाना खिलाया

भले ही मैने पिछले तीन दिनों से

कुछ भी नहीं खाया

ठेकेदार बाबु ने

पूरे रुपये दे दिए हैं

भले ही मैंने अभी तक

एक पैसा भी नहीं पाया

क्या मै झूंठा हूँ माँ

जब मै कहता हूँ की

मै तुम्हारी आँखों का मोतिया

ठीक करा दूंगा

तुम्हारी आँखों में नयी

रोशनी ला दूंगा

भले ही मैंने , गिद्धों की दुनिया में

बस अन्धेरा ही पाया

बोलो ना माँ ,क्या मै झूंठा हूँ

तुम बोलोगी ही क्या माँ

तुम तो हमेशा ही आँख मूंदकर

मुझपर विश्वास कर लेती हो

माँ मुझे लगता है

कहीं कोई भगवान नहीं है

सभी बस गिद्ध हैं

ये मौक़ा पाते ही नोच लेते हैं

किसी की , छोटी सी

उम्मीदों से भरी दुनिया

कच्चा माल

तुम्हारे पैर सीधे नहीं हैं

तुम्हारी आँखों से दिखता कुछ नहीं

तुम बहुत बूढ़ी हो चुकी हो

तुम्हारे हाँथ-पैर कटे हुए हैं

फिर भी

तुम सभी भीख नहीं मांगते ?

हाँ ,

हम सभी भीख नहीं मांगते

क्योंकि

हमारे हाँथ-पैर काटे नहीं गए

हमारी आँखे फोड़ी नहीं गयीं

मै बूढ़ी हूँ ,

फिर भी भीख नहीं मांगती

क्यूंकि बेबसी में मै छोड़ी नहीं गयी

असल में

जिन्हें तुम भीख मांगते

देखते हो

वे किसी व्यापारी के

कच्चे माल भर हैं

गाली अब फैशन बन गयी

गालियों का ज़माना है

माँ की गाली, बहन की गाली

जिसकी नहीं उसकी भी गाली

झुग्गियों में छितराए बच्चे

जब देते हैं गाली

आश्चर्य नहीं होता

दुःख भी नहीं होता

बस उजाले पीठ दिखाने लगते हैं

और अँधेरे मुस्कुराने लगते हैं

भाई, क्या कर सकते हैं

आखिर गालियों का ज़माना है

भद्र जनों के सुपुत्र

जब देते हैं गाली

उनको क्या कहें ,बिना गाली के

उनका पुत्र "स्मार्ट" नहीं होता

वाह रे सभ्यताओं का देश

एक तरफ रक्षा-बंधन का त्यौहार है

दूसरी ओर बहन की गाली उपहार है

आज कलयुग अपने यौवन पर है

और कह रहा है

सभ्यता का गला दबाकर

गालियों की बौछार करो

गाली देकर लड़ो

और गाली देकर ही प्यार करो

हिंदी भाषा , अपनी भाषा

हिंदी भाषा , अपनी भाषा

अपनी भाषा प्यारी है

स्नेह सा चमके

मन - मन दमके

हर कंठ लगे फुलवारी है

हिंदी भाषा , अपनी भाषा

अपनी भाषा प्यारी है

प्यार की बोली

हर्ष की डोली

हमने जग में उतारी है

हिंदी भाषा , अपनी भाषा

अपनी भाषा प्यारी है

हिंद की प्यारी

संस्कृत की दुलारी

विद्वानों ने संवारी है

हिंदी भाषा , अपनी भाषा

अपनी भाषा प्यारी है

गाँव की गरीब बुढ़िया

आँखों की रोशनी

जाती रही है

चूल्हों में कंडी

लगाती रही है

नातियों के मुख पर

बैठी हुई मक्खियाँ

फटे हुए आँचल से

उड़ाती रही है

फटी हुई उम्मीदें

फटी हुई एड़ियाँ

आशाओं के धूल से

छुपाती रही है

जीवन भर जो

दुःख की गठरी

ह्रदय पर अपने

उठाती रही है

वह जिंदगी के सामने

चीत्कार करती रही

और जिंदगी उसपर

मुस्कुराती रही है

किसी ने सोचा नहीं

इनके लिए कभी

तनाव भरी हवा

हमेशा रुलाती रही है

वृद्धा पेंसन योजना

ये जानती भी नहीं

सरकार वोटों के लिए

कहानियाँ सुनाती रही है

मै सब जानती हूँ

मेरे हांथों में सूखी रोटी

तुम जाते हो पांच - सितारा

मेरे बच्चों के,

दांतों के पोरों में

रोटी धंसती है

मेरे पति

तुम्हारे नसेड़ी औलादों के

चार चक्कों पर , चिपक कर

चीख भी नहीं पाते

और उनकी साँसें

सड़क के गड्ढे भरने वाली

कंक्रीटों की तरह

बिखर जाती हैं

और जब मेरी मांग का सिन्दूर

मेरे ही पति के लहू से

धोया जा रहा होता है

तब तुम

अपनी पहुँच की एसिड से

चार चक्के धुलवा रहे होते हो

मै जानती हूँ

जब तुम मंहगी शराब

अपनी हलक में

उतार रहे होते हो

तब हम पंक्तियों में

झगड़ते हुए

पानी भरने का इंतज़ार करते हैं

मैं यह भी जानती हूँ, कि

जब मेरे बच्चे

भूंख से चिल्ला रहे होते हैं

उस समय, तुम्हारी औलादें

पार्टियों में हुड़दंग मचाती हैं

ये सारे छोटे-छोटे दुःख हैं

जिनपर लेटकर मुझे

तारों की संख्या, बताने की

सज़ा मिलती है

और एक बड़ा दुःख पैदा होता है

वह, यह है कि

मैं सब जानती हूँ

फिर भी कुछ कर नहीं सकती

और तुम लोग, सब जानते हो

फिर भी कुछ करते नहीं

नए किश्म के डकैत

होंठों पर कातिल मुश्कान
मूंछों पर बिना बालों की शान
सभी परिचित हो चुके हैं
इन नए डाकुओं से
मैंने बस खोली थी खिड़की
घर की, दिमाग की
और मेरे सामने थी
एक भयावह तश्वीर
असुरक्षित भविष्य की
दो मोटर-साइकल सवार
चले आ रहे थे
और ये दोनों खाकी वर्दी
डकैती से पहले
मुस्कुरा रहे थे
फिर क्या हुआ होगा
बहुतों को मालूम है
अब क्या हो रहा है
मै बताता हूँ
डकैती का माल
वे आपस में बाँट रहे हैं
और सामने खड़े भविष्य को
लाठी से डांट रहे हैं

वि.आई.पी. कुत्ते

मेरी उम्मीदें
उनके टूटे चप्पलों जैसी
मेरे सपने
थक-कर चूर
मरियल से चेहरे लिए
झुग्गियों में सोते हुए
दीखते हैं
फटी चादर से बने दरवाजे पर
मूतते हुए कुत्ते
कुछ नहीं जानते
जो इन्हें बदल सकता है
उसके दिमाग में
जब ये बातें उड़ेली जाती हैं
तब वे
वातानुकूलित शौचालय में
मूत कर चले आते हैं
ये भी कुत्ते हैं
और सब जानते है
यदि न जानते , तो
फटी चादर से बने
दरवाजे पर .................................................

तेरा खेल, मेरा खेल

सलीम के चीखने से
सुरेश रो पड़ा
शांत हो जा बेटे
सलीम की अम्मी ने कहा
तुम दोनों एक ही हवा में साँस लेते हो
एक ही धरती से उपजा हुआ
अन्न ग्रहड़ करते हो
साथ खेलते भी हो
यहाँ तक की
तुम एक जैसा आनंद भी उठाते हो
फिर अचानक क्या बात हुई
कि सलीम जोर-जोर चिल्ला रहा है
और तुम्हारी मासूम आँखों में आंशु आ गए हैं
प्यारा सा बच्चा सुरेश कहता है कि
सलीम ने कहा
मै अल्लाह-अल्लाह वाला ही खेल खेलूंगा
और मैंने कहा
यह भी कोई खेल है
हम शंकर, विष्णु, ब्रम्हा, हनुमान, राम, कृष्ण
दुर्गा वाला खेल खेलेंगे
इसमे आनन्द ही आनंद है
सुरेश की माता भी वहाँ आ चुकी थी
उसकी बातें सुनकर
जन्म देने वाली दोनों माताएं
ही -ही , ही - ही करके हंसनें लगीं
और उनके बीच बिना सुलह करवाए
अचानक गायब हो गयीं

संसद भवन के चूहे

तुम मुहावरे गढ़ते रहे
और उन्होंने लाशें बिछा दीं
फिर अहसास हुआ जब
तब तुम चीखे चिल्लाए
उनके कानों में लगा
किसी मच्छर का भिनभिनाना
थोड़ी सी तकलीफ दी तुमने
वे जानते थे, और तैयार भी थे
आज भी वे तैयार रहते हैं
और तुम
बस संसद भवन के चूहे रह गए
और दूसरों की बोरियां काट रहे हो

शुक्रवार, जनवरी 01, 2010

नव वर्ष की शुभकामनायें

उम्मीदें जागीं , प्रभात जागा
जो जगाता चिंतन को
ह्रदय में हर वह बात जागा
चलो जगाएं बाकी को अब
चलो जगाएं साकी को अब
चलो उठायें दुःख के प्याले
आओ पी जाएँ गड़बड़-झाले
नयी उम्मीदों से सजी बात है
नव वर्ष का नव प्रभात है