तीरों की संख्या

मंगलवार, जनवरी 04, 2011

गाँव की गरीब बुढ़िया

आँखों की रोशनी

जाती रही है

चूल्हों में कंडी

लगाती रही है

नातियों के मुख पर

बैठी हुई मक्खियाँ

फटे हुए आँचल से

उड़ाती रही है

फटी हुई उम्मीदें

फटी हुई एड़ियाँ

आशाओं के धूल से

छुपाती रही है

जीवन भर जो

दुःख की गठरी

ह्रदय पर अपने

उठाती रही है

वह जिंदगी के सामने

चीत्कार करती रही

और जिंदगी उसपर

मुस्कुराती रही है

किसी ने सोचा नहीं

इनके लिए कभी

तनाव भरी हवा

हमेशा रुलाती रही है

वृद्धा पेंसन योजना

ये जानती भी नहीं

सरकार वोटों के लिए

कहानियाँ सुनाती रही है

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